माना इश्क़ मे हैं हम – #अंजान……

ऐसा भी भला क्या है कि
तेरे पहलू में सिमट जाए हम
कि माना इश्क़ मे हैं हम
तो भला क्या मिट जाए हम
कर्ज और भी हैं जिंदगी के
कि नजरों मे गिर न जाए हम
हाल ऐ दिल क्या बताए भला
जिम्मेदारी से पिछे हट जाए हम
बड़े जतन किए तुझे पाने के
पर ये शिकस्त नही है मेरी
क्या पता इस बहाने संभल जाए हम……

बेजान सी ज़िन्दगी – *मेधा शर्मा*

फूलों से इतना लगाव तो नही
पर मेरी ज़िन्दगी में बहार लाने वाले उस फूल के लिए कुछ कर गुजरने का ज़ज़्बा खूब रखती हूँ
जाड़ों की गुनगुनी धूप
गर्मियों की शामें
और बरसात की हरियाली
मुझे मायूस करते हैं
मैं कुछ खो सी जाती हूँ
फिर…
जब एहसास होता है तेरे होने का मुझे
बेजान सी ज़िन्दगी उस अभी अभी खिले गुलाब की तरह लगती है….
जाने कितने रंग हैं मेरे इस गुलाब के
बिलकुल अपने नाम की तरह
“आकाश” के अनेकों रूप
भर जाते हैं मेरी झोली में…
और मैं समेट भी नही पाती
और खिलखिला जाती हूँ…
कभी तेरे ख्यालात हैरान परेशां करते हैं
पर फिर तू आकर संभाल लेता है एक छोटे बच्चे की तरह,,
और……
और कभी मेरे जज़्बात
हावी होते जाते हैं
फिर एक सावन आता है
सब कुछ बह सी जाती हूँ
मुझे महसूस होता है
मैं खो रही हूँ तुझमे कहीं
अपने गुलाब के रंगों में
तेरी महक में
और निकलना भी नही चाहती ….!!!

*मेधा शर्मा*

अंजान अंजानी की कहानी – अंजान

पहला प्यार तुम
तुम ही आखिरी
तुम में मैं
मुझ मे तुम
औ मेरे हमदम
सावन की बरसात हो
रिमझिम फुहार हो
तेरा मेरा साथ हो
चाँदनी रात हो
झिलमिलाए तारें
कुछ अनकही बात हो
भीगे हम भीगे तुम
कुछ ऐसी बरसात हो
हाथों मे हाथ लिए चलते रहें
तेरे मेरे कदम साथ साथ हो
पहला प्यार तुम
तुम ही आखिरी
तेरे संग हर दिन हर रात हो
अंजान अंजानी की कहानी
बेमिसाल हो
पहला प्यार तुम
तुम ही आखिरी
तुम मे मैं
मुझमे तुम
औ मेरे हमदम……….

मेरे दिल की धड़कन – *मेधा शर्मा*

मेरे वक़्त ने तेरे वक़्त से की हमजोली है…!
मेरे दिल की धड़कन से तेरे दिल की धड़कन बोली है….

मेरे दिल के पन्नो पर लिखगये प्रेमपुराण हो तुम
कितने अंतस तक बैठ गयी
जाने कैसी श्याही उड़ेली है…

ना देने की बात नही
एक तू ही तो हक़दार मेरा
तुझको पाऊँ हर जन्म
ये अर्जी मैंने दे दी है…!

मेरे इस मन का कान्हा तू
मैं तेरे मन की राधा हूँ
मेरी सोच सोच में तू शामिल
ये राज़ की बात आज खोली है…!!

मेरा रूप सलोना है तुझसे
हर श्रृंगार तुझी से करती हूँ
मेरे माथे की बिंदिया भी संग
गालों की लाली बोली है.!!!

*मेधा शर्मा*


अपना आँगन – *मेधा शर्मा*

चिड़ियों सा चहकता हुआ करता था अपना आँगन
कितना खेली थी आपके साथ इस आँगन में पापा
अधूरा बचपन बीता आपके साथ इस आँगन में
वो खिलखिलाते दिन वो ठंडी रातें
दादी के साथ सवालों औऱ पहाड़ों में बीतती रातें
बहुत याद आती है आपकी जब जब भी जाती हूँ घर
दिल मे हूक सी उठाती हैं पापा आपकी यादें
वो दिन में सहेलियों संग वालिस्ता खेलना
गर्मी की छुट्टियों में बहनो संग महफ़िल जमाना
कितना सुहाना सा मंजर होता था उस आँगन में
मुझे याद है वो बिस्तर लगाना वहां
और भैया का वो डराना रातों में
कैसे दुबक जाती थी आके आपके बिस्तर में
क्यों चले गए यूँ छोड़ के बीच मे अपनी गुड्डा को
अब नही बैठती कोई भी चिड़िया उस आँगन में…

*मेधा शर्मा*


मंजिल खुद नही बदलेगी -*मेधा शर्मा*

ज़िन्दगी ख़त्म होने का नही
पड़ाव बदलने की है ज़रूरत…
एक राह का ठराव
कई उलझने बड़ा जाता है
सच तो ये है…
जिंदगी नही… पड़ाव बदलने
की है जरूरत…
ये थकने का नही वक्त
उठ कर हिम्मत दिखाने का है

द्रश्य तो तभी बदलेंगे
जब खुद में हो हिम्मत
जहां बदल डालने की
द्रश्य नहीं छुटते राह के कभी
उठ कर कदम बढ़ाने की है जरूरत…

ज़िन्दगी तब लगेगी सुहानी
जब रफ़्तार पकड़ेगी
मंजिले और भी है राह में
बस अपने ही कदमो की है जरूरत..

महक जाएँगी तुम्हारी भी सांसे
ज़रा नज़रे उठा कर तो देख
सारा आकाश ताक रहा है तुझे
बस एक तेरे हाथ उठाने की है जरूरत..

मंजिल खुद नही बदलेगी
बदलना खुद को ही पड़ेगा
बस एक तेरे कदम बढ़ाने की है जरूरत….!!!
*मेधा शर्मा*


तुम जो साथ दो मेरा – * मेधा शर्मा *

सोच सोच के हार गई
थक हार के बैठ गयी
कैसे ढूंढू वो चाबी
जो मेरे से जाने कैसे गुम गयी

अब क्या होगा कैसे होगा
ये जीवन गुत्थी उलझ गई
जब तलक नही मिलेगी
मेरी किस्मत यूँ ही बंध गई

इतनी कस के पकड़ी थी ताली
जाने कैसे छूट गयी
होश नही अब सुध बुध भूली
हँसती किस्मत पलट गई

देख देख चकराए है बुद्धि
इतनी टेढ़ी राहे हैं
बिना साथ बिना प्यार के
वो चाबी कैसे अब मिलेगी..??

बिना सहारे कैसे पाऊं
अपनी खुशियों की चाबी को
डर के मारे हौसले पस्त हैं
ये किस्मत मेरी पसर गयी

देखो तुम जो साथ दो मेरा
हर मुश्किल से निबट लूँगी
माना मुश्किल है साथ मेरे चलना
पर तेरे लिए ये नामुमकिन नही

ऊंची नीची राहों पर
साथ तेरा ही चाहिए मुझे
हाथ पकड़ देता है जब सहारा
मैं कठिनाई सारी भूल गयी।
* मेधा शर्मा *


अनजान सा रिश्ता – मेधा शर्मा

बहुत अनजान सा रिश्ता है अपना
थोड़ा सुलझा बहुत अनसुलझा
क्यों गिरहा नही खोलते तुम मुझसे
मैं तेरे दिल का आईना बनना चाहती हूं…
सोचती बहुत हूँ
पूछती बहुत हूँ अपने दिल से
कि तुम्हारी बातें कहीं
छूती भी नही दिल को
पर तुम्हारे साथ सुबह पहली आँख खोलना चाहती हूं….
दिल को एक टीस खलती बहुत है
तुम सिमटे हो खुद में
क्यों रखते हो वो दूरी हमेशा
तुमसे तुम्हारी हर एक
बात करना चाहती हूं…
तुम मेरे हो सिर्फ मेरे
ये मानते हो तुम
फिर इस बात को
ज़ाहिर क्यों नही करते
तुम्हारे मुँह से ये बात
मैं सुनना चाहती हूं…
दुनियाँ घूम आओ तुम
पहन के नकली चोला
कोई फर्क नही पड़ता
जब आओ पास मेरे
तो उतार दिया करो वो चोला
मैं सिर्फ तुमको तुम्हारे
दिल को देखना चाहती हूँ…
थक के चूर होके जब
आओ न तुम पास मेरे
मेरी गोदी का सिरहाना
तुम्हारे सर के नीचे रखना चाहती हूं…
माथे पर आई वो पसीने की बूंदे
अपने दुप्पटे के आंचल से
पोछ देना चाहती हूं…
कि दुनियां जानती है तुमको
तुम्हारे रुतबे से मगर
मैं तेरे दिल को टटोलना चाहती हूं…
दे दो तुम दुनिया को
सारे जहां की खुशियां
फ़र्क नही मुझको
मैं तो सिर्फ तुमको
दुनिया जहाँ की
खुशियां देना चाहती हूँ…
मैं सिर्फ तुमको
सिर्फ तूमको चाहती हूँ…!
*मेधा शर्मा*


मेरे प्यार का ये शहर – *मेधा शर्मा*

हर आस मचल जाती है जहाँ हर सपना साकार सा लगता है
इसलिए ए दोस्त मेरे,वो सफ़र सुहाना होता है

खुशियों के मोती मिलते है,धड़कन को सुर मिल जाते हैं
सब कुछ मन चाहा होता है,हर गम जो छुप जाते हैं

ख्वाबों में तेरा आना ये मेरे बस की बात नही
ये तो प्रीत की डोर है दिल की,देखे कोई और बात नही

देख अभी भी तो कैसे ये दिल मेरा एक तेरे इंतज़ार से रौशन है
तू ना आना चाहे फिर ये कैसे हो जाता गुमसुम है

हर ओर शनाइयां बज उठती,दिल ये शोर भी करता है
मेरे सूने सपने को एक,तेरा आना ही रंग भर सकता है

कहीं कमी तो छोडी मैंने जो हक़ीक़त को ना भेद सकी
वर्ना मेरा एक इशारा ही,पास तुझे ला सकता है

एक बार तू छोड़ दे अहं को आके मेरे पास बैठ
देख के मेरी तड़प से,मन तेरा भर सकता है

देना बाँहों का घेरा मुझको न न चाहे बोले कुछ
तुम चुप चाप से अपने होंठ,मेरे होठों पे रख देना..

मेरे प्यार का ये शहर है जो तेरे दिल में है बसता है….
इसीलिए ए दोस्त मेरे ,वो सफ़र सुहाना होता है….!!

*मेधा शर्मा*


अधूरा बचपन – *मेधा*

चिड़ियों सा चहकता हुआ करता था अपना आँगन
कितना खेली थी आपके साथ इस आँगन में पापा
अधूरा बचपन बीता आपके साथ इस आँगन में
वो खिलखिलाते दिन वो ठंडी रातें
दादी के साथ सवालों औऱ पहाड़ों में बीतती रातें
बहुत याद आती है आपकी जब जब भी जाती हूँ घर
दिल मे हूक सी उठाती हैं पापा आपकी यादें
वो दिन में सहेलियों संग वालिस्ता खेलना
गर्मी की छुट्टियों में बहनो संग महफ़िल जमाना
कितना सुहाना सा मंजर होता था उस आँगन में
मुझे याद है वो बिस्तर लगाना वहां
और भैया का वो डराना रातों में
कैसे दुबक जाती थी आके आपके बिस्तर में
क्यों चले गए यूँ छोड़ के बीच मे अपनी गुड्डा को
अब नही बैठती कोई भी चिड़िया उस आँगन में….

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