रानी दुर्गावती

दुर्गावती का जन्म लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कालिंगर के राजा कीर्तिराय की एकमात्र सन्तान के तौर पर हुआ। बाल्यकाल से ही दुर्गावती पुरुषों से भी बढ़चढ़ कर कुशलता और प्रवीणता से शस्त्र संचालन और घुड़सवारी करती थी। गढ़ मण्डला के राजा दलपति शाह ने जब एक बार दुर्गावती को अभ्यास करते हुए देखा तो प्रभावित होकर तुरन्त ही उस वीरांगना को अपनी अर्धागिनी बनाने का निश्चय कर लिया। दलपतशह से विवाह कर दुर्गावती गढ़ मण्डला की राजरानी बनी।

वर्ष भर बाद ही उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई राजा और राज्य दोनों ही खुशी झूम उठे। रानी पारिवारिक जीवन का एक वर्ष का ही सुख प्राप्त कर पाई थी से कि वज्रपात हुआ। राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई। राजपरिवार के लोग राजा की चिता सजाने के साथ-साथ रानी को भी उनके साथ जलाने का प्रबन्ध करने लगे। परन्तु रानी ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा- “मुझे तो पति के साथ आग में जल जाना उनके सौंपे उत्तरदायित्वों से भागने जैसा ही लगता है। मैं एक ही मार्ग देखती हूँ उनके पदचिह्नों पर चलते हुए उत्तरदायित्वों को निभाने का।”

इसके बाद रानी ने अपना अगला कदम अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा एवं दक्षता के साथ शासन व्यवस्था की सूत्रधार के रूप में उठाया। अब हर किसी को सुविधापूर्वक रानी से मिलने और अपने दुख-दर्द समस्याएँ कहने का मौका मिलने लगा। इस कारण जनता रानी को अपने प्राणों से भी अधिक चाहने लगी।

इस प्रकार अपने राज्य की व्यवस्था ठीक करने के बाद उनका ध्यान पड़ौसी शत्रुओं से राज्य को सुरक्षित बनाने की ओर गया। आस-पास के पड़ोसी राजा समझते थे कि दुर्गावती एक अबला है और उसे चुटकियों में परास्त कर उसके राज्य को अपने राज्य में मिलाया जा सकता है, परन्तु दुर्गावती भी सावधान थी सबसे पहले मौका ढूँढा सिराज के मिया ने और मुँह की खाई। जल्दी ही मालवा के बाज बहादुर ने भी गौंडवाना पर आक्रमण कर दिया किन्तु करारी मार खायी।

इन्हीं दिनों दिल्ली का बादशाह अकबर सम्पूर्ण भारतवर्ष का अधिपति बनने का सपना देख रहा था। जब उसे पता चला कि गौंडवाना की बागडोर एक महिला के हाथ में है तो यह स्वतंत्रता उसकी आँखों में खटकने लगी। इसके लिये उसने अपने एक सूबेदार आसफ खाँ को गौंडवाना विजय के युद्धभियान पर जाने का आदेश दिया। अभियान पर जाने से पहले आसफ खाँ ने गौंडवाना की आन्तरिक शक्ति, सैन्य शक्ति और साधन बल की टोह लेने के लिये जासूस भेजे। इसकी इस योजना में गौंडवाना के उन देशघाती अधिकारियों ने पूरा सहयोग किया जो रानी से पहले ही जले-भुने बैठे थे। साथ ही कुछ ऐसे अधिकारी भी साथ हो गये जो धन और पद के प्रलोभन में आ गए। जब यह पक्का लगने लगा कि गौंडवाना जीता जा सकता है तो आसफ खाँ ने दस हजार घुड़सवार सेना लेकर कूच किया।

रानी का जब इस बात का पता चला तो यह जानते हुए भी मुगल सेना की तुलना में गौंडवाना के पास साधन भी कम हैं और सैनिक भी कम है। उन्होंने अपनी सेना को तैयार रहने के लिये कहा और अपने सोलह वर्षीय पुत्र वीर नारायण को जनता का मनोबल बढ़ाने के लिये जन सम्पर्क साधने तथा सैनिक तैयारियों का निरीक्षण करने के लिये नियुक्त कर दिया और स्वयं सैनिक कमान सम्भाली और घोड़े पर सवार होकर शत्रु, से लड़ने मैदान में पहुँची। सेना का मनोबल और उत्साह बढ़ाने के लिये यही काफी था। वे इतने प्राण पण से लड़े कि अपने पुराने अस्त्र शस्त्रों से ही दुश्मन के दाँत खट्टे कर दिये और आधुनिक हथियारों से लैस, दस हजार सैनिकों का सेनानायक सिर पर पाँव रखकर भागा। यह आसफ खाँ की नहीं, दिल्ली के बादशाह की हार थी।

रानी और उनके सैनिक विजयोल्लास में डूबे थे कि आसफ खाँ और अधिक सेना लेकर आया। रानी और उनका पुत्र वीर नारायण पूरी शक्ति से लड़े। वीर नारायण वीर गति को प्राप्त हुआ। शत्रु सैनिक का एक तीर रानी की आँख में लगा और दूसरा गर्दन में रानी घोड़े से गिर पड़ी अब बच पाना कठिन देखकर रानी ने अपनी कटार अपने सीने में मारकर मृत्यु को गले लगाया, परन्तु जीते जी शत्रु के हाथ नहीं लगी। सचमुच वह नारी शक्ति का साक्षात अवतार थी।

येसुबाई

शिवाजी को मृत्यु के उपरांत उनके द्वारा स्थापित हिन्दू महाराष्ट्र पर संकट के बादल छाने लगे थे। अपने उत्तराधिकारी संभाजी को तो शिवाजी ने पहले ही उसकी विलासिता के कारण पन्हाला के दुर्ग में कैद कर रखा था। माता जीजाबाई और समर्थ गुरु रामदास की छत्रछाया भी मराठों के सिर से उठ चुकी थी। उन विषम परिस्थितियों में अपने त्याग और तप से जिसने स्थिति को संभाला वह थी येसुबाई।

वीरता और राज्य संचालन की कला में तो संभाजी पूरी तरह निपुण थे परन्तु विलासिता के दास बन गये। छत्रपति बनने के बाद संभाजी और उनके भाई राजाराम के बीच संघर्ष चलता रहा। उस संघर्ष में संभाजी ने राजाराम और उसके समर्थकों की हत्या का प्रयास किया तो पति के इन निंदनीय कार्यों का येसुबाई ने विरोध किया। उन्हें पिता के आदर्शों के अनुसरण की बात कही। विवेकशील येसुबाई के परिणामस्वरूप संभाजी के भीतर का पशुत्व मरता गया और उन्होंने अपनी वीरता और योग्यता का परिचय दिया।

औरंगजेब का विचार था कि विलासी संभाजी के छत्रपति बनते ही वह उस पर विजय पा लेगा। परन्तु उसकी यह आशा उस समय निराशा में बदल गई जब उसे पता चला कि पत्नी येसुबाई संभाजी के साथ हमेशा परछाई बनकर रहती है। फिर भी औरंगजेब ने धोखे से संभाजी को कैद कर लिया परन्तु येसुबाई के प्रयासों और सम्भाल का असर था कि संभाजी ने किसी प्रकार झुकना और धर्मपरिवर्तन स्वीकार नहीं किया।

अन्त में संभाजी के अंग काटकर हत्या कर दी गयी। जैसे ही यह समाचार येसुबाई को रायगढ़ में मिला। इस विषम स्थिति में उसने अपने कर्तव्य को समझा और तुरन्त ही देवर राजाराम को मराठा वीरों का नेता बनाकर रायगढ़ से विदा कर दिया। रायगढ़ पर दस महीने तक औरंगजेब का अधिकार नहीं हो पाया पर अन्त में एक सरदार के विश्वासघात के कारण रायगढ़ का पतन हुआ। छत्रपति का सिंहासन तोड़ा गया, नगर लूटा गया और येसुबाई को पुत्र सहित बंदी बना लिया गया।

दिल्ली में औरंगजेब द्वारा वे पुत्र सहित सोलह वर्ष तक नजरबंद रखी गईं। इसमें भी उन्हें महाराष्ट्र का हित नजर आ रहा था। उन्हें विश्वास था कि ऐसी स्थिति में स्वाभिमानी मराठे निश्चय ही संगठित होकर उन्हें छुड़ाने का प्रयास करेंगे। दिल्ली में रहते हुए भी उन्होंने अपने दो विश्वस्त सरदारों भक्ताजी हुलरे व बंकी गायकवाड़ द्वारा संदेश और मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए महाराष्ट्र को शक्तिशाली बनाया। येसुबाई ने राजाराम को विशालगढ़ से हटकर, जिंजी पहुंचकर, राजचिह्न धारण कर और छत्रपति बनकर राज्य के रक्षा की प्रेरणा दी। राजाराम येसुबाई की उदारता व त्याग से अत्यधिक प्रभावित हुआ और उन्हें माता मानने लगा।

नजरबंद रहकर भी येसुबाई ने अपने पुत्र साहू जी का विवाह एक कुलीन कन्या से करवाने में सफलता पाई। मुगल शहजादियों जहांआरा और रोशन आरा भी इनके चरित्र और व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित हुई थी और येसुबाई को भरपूर सहयोग दिया था। 17 वर्षों तक नजरबंद रहने के बाद साहूजी को तो मुक्त कर दिया गया परन्तु येसुबाई को बंधक बनाकर रखा गया क्योंकि औरंगजेब साहूजी से अधिक येसुबाई को अपने लिये खतरनाक मानता था। साहूजी के प्रयासों के कारण दो वर्ष बाद उनकी माता येसुबाई को भी नजरबंदी के जीवन से मुक्ति मिली।

19 वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर नजरबंदी का जीवन बिताते से हुए भी येसुबाई ने परिवार से दूर रहकर महाराष्ट्र को बनाए रखने के लिये संजीवनी बूटी बनकर कार्य किया। एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी, वीर माता, देशभक्त और विवेकशील महिला के रूप कर्तव्यों का पालन करते हुए येसुबाई ने 70 वर्ष की अवस्था में महाप्रयाण किया।

महारानी पद्मिनी का जौहर

महारानी पद्मिनी सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन और रानी चम्पावती की पुत्री थी। पद्मिनी का विवाह चित्तौड़ के रावल रत्न सिंह के साथ किया गया। पद्मिनी के सौन्दर्य और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्म प्रचारकों और लोक गायकों द्वारा विविध रूपों और आशयों में कही गई है।

महारानी पद्मिनी की इस सुन्दरता का समाचार जब अलाउद्दीन के कान तक पहुँचा। तो वह पद्मिनी को प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो उठा। वीर राजपूतों के रहते युद्ध के बिना पद्मिनी । मिलना असम्भव था। इसलिये उसने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी, चित्तौड़ को चारों ओर से घेर लिया और महारावल के पास दूतों द्वारा संदेश भेजा कि बिना पद्मिनी के लिये दिल्ली न जाऊँगा। दूत से संदेश सुनकर महारावल आग बबूला हो गए। भयंकर युद्ध होने लगा। अंत में पठान सेना के पैर उखड़ गए और युद्धस्थल छोड़कर भाग निकले। अलाउद्दीन को निराश खाली हाथ ही लौटना पड़ा।

कुछ समय पश्चात् अलाउद्दीन फिर एक बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ पर आ धमका और केवल पद्मिनी को देखकर लौट जाने का संदेश भेजा। युद्ध को टालने के लिये इस शर्त को मान लिया गया। दूर से दर्पण में पद्मिनी को दिखाया गया। पद्मिनी की सुन्दरता को देख अलाउद्दीन पागल हो उठा और अतिथि के नाते रावल जैसे ही उसे द्वार तक छोड़ने आए उन्हें बंदी बना लिया गया।

अब अलाउद्दीन ने शर्त रखी कि जब तक महारानी पद्मिनी मेरे पास न आ जायेगी तब तक रावल नहीं छोड़े जायेंगे।” इस समाचार ने चित्तौड़ में हलचल मचा डाली। परन्तु महारानी और स्वामी भक्त मंत्रियों ने सोचा कि इस समय नीति से ही काम लेना उचित है। इसीलिये उसी समय दूत को संदेश दे दिया कि महारानी अपनी सात सौ. सहेलियों के साथ आ रही हैं। यह संदेश पाकर अलाउद्दीन बहुत आनन्दित हो उठा।

नियत समय पर सात सौ डोलियाँ चित्तौड़ गढ़ से निकलकर अलाउद्दीन के खेमे में जा पहुँची। उन पालकियों को उठाने वाले और उनमें बैठने वाले सभी वीर राजपूत योद्धा थे। वहाँ पहुँचकर वीर बादल ने अलाउद्दीन से प्रार्थना की कि महारानी एक बार महारावल के दर्शन करना चाहती है।

तुरन्त महारावल बंधनमुक्त कर दिये गये। अब रावल को बड़ी समझदारी के साथ बादल ने चित्तौड़ रवाना कर दिया और पालकी में आए सभी राजपूत वीर खिलजी सेना पर सिंहों की तरह टूट पड़े। बादल के साथ भतीजे गोरा ने ऐसा युद्ध कौशल दिखाया कि शाही सेना घबराकर मैदान छोड़ भाग खड़ी हुई।

पराजित खिलजी विवश होकर दिल्ली लौट आया किन्तु पद्मिनी को पाने की लालसा अब भी उसके हृदय में फाँस की तरह चुभी हुई थी। उसने पुनः दोगुने उत्साह से चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। इस बार दुष्ट खिलजी बड़ी तैयारी के साथ आया था। छः मास तक राजपूत सेना बड़ी वीरता से लड़ती रही। परन्तु गढ़ में घिर हुए राजपूत वीरों की संख्या इतनी घट चुकी थी कि हार निश्चित थी। अब गढ़ के भीतर क्षत्राणियों ने चिता सजाई और पद्मिनी रानी 16000 क्षत्रणियों के साथ अग्नि में समा गयी।

जब राजपूतों ने देखा कि महारानी पद्मिनी सहित गढ़ की समस्त नारियों ने अग्नि का वरण कर लिया है, तो वे केसरिया बाना पहन सिंह गर्जना करते हुए यवनों पर टूट पड़े। भीषण संग्राम हुआ और अलौकिक वीरता दिखाता प्रत्येक राजपूत वीरगति को प्राप्त हुआ।

अलाउद्दीन पद्मिनी को पाने की लालसा में आनन्द मनाता हुआ किले में प्रविष्ट हुआ। मगर ये क्या? उसकी आँखे फटी की फटी रह गई! सारा नगर अग्नि स्नान हो चुका था। वह शीघ्रता से राजप्रसाद में पहुँचा। महारानी पद्मिनी तो पहले ही जौहर की चिता में जलकर भस्म हो चुकी थी। इस सब को देखकर अलाउद्दीन को राजमहल एवं मंदिरों को तोड़कर अपना क्रोध शान्त करना पड़ा। इतिहास में सन् 1303 का वह काला दिवस था जिसे महारानी पद्मिनी ने अपने अविस्मरणीय बलिदान से स्वर्णिम बना दिया।

रुद्रमाम्बा

‘मुझे बोलने से आज मत रोक बेटी ढेर सारी बातें जो मुझे तुझसे करनी है। आज मैं तेरा वचन भी लेकर ही रहूँगा। तू मेरे बुढ़ापे का सहारा और एकमात्र संतान है। ऐसे ही किसी दिन चल बसा तो ये बातें मेरे भीतर ही रह जायेंगी। मेरे जाने के बाद काकतीय साम्राज्य का भविष्य क्या होगा? इसकी चिंता तो मुझे ही करनी पड़ेगी ?’

वारंगल (आंध्र प्रदेश) के काकतीय नरेश गणपति देव अपनी इकलौती पुत्री रुद्रमाम्बा देवी से बातें कर रहे थे। जिसका विवाह उन्होंने 14 वर्ष की अवस्था में निडाडवोलु के चालुक्य राजकुमार वीरभद्र के साथ किया था और इस समय उसकी एक बेटी भी थी। उसके सुसराल पक्ष के किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार सौंपने की पेशकश राजा के सामने आ चुकी थी और उसे वे ठुकरा भी चुके थे। कुडुप कोट्टम को सामन्त अम्बदेव इस आड़ में अपना वर्चस्व जमाने की चाल खेल रहा था जिसे राजा भलीभांति समझ चुके थे। पुत्र के अभाव में विशाल साम्राज्य उत्तराधिकारी की चिंता में डॉवाडोल हो रहा था। उनकी चिंता से उत्पन्न इस उद्वेलनपूर्ण आग्रह के सम्मुख रुद्रमा झुक गई और उसने राज्य की सुरक्षा के लिये पिता की इच्छा को शिरोधार्य किया। तब गणपति देव ने दरबार में रुद्रमाम्बा को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए अपना राजसी खड्ग उसे प्रदान किया। यह समय था सन् 1260 का। और इसके कुछ समय बाद ही राजा का देहान्त हो गया। अब राज सिंहासन पर एक अबला को बेटी जानकर उनके शत्रु प्रसन्न हो गये और आक्रमण की योजना बनाने लगे। इस कड़ी में प्रथम प्रयास अम्बदेव ने ही किया। उसने रुद्रमाम्बा को एक पत्र भेजा कि आप जैसी पतिकुलद्रोही के प्रति मेरी कोई निष्ठा नहीं है। अतः मैं आपकी अधीनता अस्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार का हतोत्साहित करने वाला एक पत्र उन्हें पतिगृह से भी मिला। तब उन्होंने अम्बदेव के पत्र का उत्तर एक महारानी के रूप में दिया और पति के पत्र का उत्तर एक कुलवधु के रूप में दिया।

इसी समय रानी को सूचना मिली कि देवगिरि के यादवराज महादेव वारंगल पर आक्रमण की सोच रहे हैं। ऐसी स्थिति में रानी ने पूर्व में गांग नरेश नरसिंह वर्मन द्वितीय को आर्थिक और सैनिक सहयोग देकर मित्रता कर राज्य की पूर्वी सीमा को सुरक्षित किया। दक्षिण पूर्व के राजाओं से उदार सम्बन्ध स्थापित कर राज्य की दक्षिण सीमा को सुरक्षित कर दिया। अम्बदेव पर आक्रमण न कर सैनिक सतर्कता रखते हुए पश्चिम और पश्चिमोत्तर दिशा से यादव संकट का दृढ़ता से सामना करने की पर्याप्त तैयारी कर ली। देवगिरि नरेश ने रानी को पत्र भिजवाया कि वह आधीनता स्वीकार कर ले। किन्तु रानी ने तीखे व्यंग्य वाक्यों से उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर युद्ध की खुली चुनौती दे डाली।

रानी ने अपने युद्ध परिषद् में अपनी अद्भुत रणनीति का परिचय दिया और सेना नेतृत्व करते हुए यादवराज की सेना से भीषण युद्ध किया और अन्त में रानी को ही विजय मिली। सन् 1261-1296 के अपने 35 वर्ष के शासनकाल में रानी द्वारा एकमात्र विराट और निर्णायक युद्ध जीत लेने से चारों ओर उनकी धाक जम गयी। अलाउदीन खिलजी जैसा आततायी भी वारंगल की ओर आँख उठाकर देखने का साहस न कर सका। रानी के शासन काल में धार्मिक अनुष्ठानों की भी सर्वत्र धूम मच गई थी। अब राज्य का व्यापार भी देश की सीमाओं को लाँघकर समुद्र पार देशों तक होने लगा। इसी ख्याति के कारण इटली का विख्यात नाविक यात्री मार्को पोलो जब चीन गया तो स्वदेश लौटते समय वारंगल भी पहुँचा, चीन की राजकुमारी भी उसके साथ थी। रानी ने दोनों का सम्मान किया और एक आदर्श भारतीय माँ की तरह बहुमूल्य उपहार देकर विदा किया। मार्को पोलो ने अपने यात्रा संस्मरणों में रानी रुद्रमाम्बा का एक आदर्श शासिका के रूप में विशुद्ध वर्णन किया है।

शासन के 32 वर्ष पूर्ण होने पर रानी ने अपनी इकलौती पुत्री के पुत्र प्रतापरुद्र को राज्य का भार सौंप दिया राज्याभिषेक के तुरन्त बाद उसने सर्वप्रथम आम्बदेव पर विजय पाई तो राजामाता रुद्रमाम्बा प्रसन्न हुई और उसे समझाया कि सभी पड़ोसी राज्यों को एकजुट होकर दिल्ली पर आक्रमण करना चाहिये। लेकिन प्रतापरुद्र ने एक न सुनी और वह काकतीय साम्राज्य का अन्तिम शासक सिद्ध हुआ। रानी की मृत्यु के तीस साल बाद मुहम्मद तुगलक ने वारंगल को अपने राज्य में मिला लिया।

रानी लक्ष्मीबाई

सन् 1835 में काशी के मणिकर्णिका घाट पर निवास के दौरान पेशवा बाजीराव प्रथम के आज्ञाकारी सेवक, मोरोपंत ताम्बे और भागीरथी बाई के घर एक कन्यारत्न ने जन्म लिया। इसीलिये कन्या को नाम मिला- मणिकर्णिका बाई, जो मनुबाई के नाम से भी जानी गई। मनु के पिता को पेशवा ने अपने साथ रहने के लिये सपरिवार काशी से बिठूर बुला लिया था। अब राज परिवार के बालकों के साथ मनु भी घुड़सवारी, व्यायाम और शस्त्र चलाना आदि का अभ्यास करने लगी।

मनु जब 14 वर्ष की हुई तो पेशवा की सलाह पर पिता ने उसका विवाह झाँसी के 40 वर्षीय विधुर एवं निसंतान महाराजा गंगाधर राव से कर दिया और मनु अब मनु से महारानी लक्ष्मीबाई बन गई। झाँसी नगर के प्रमुख घरानों की महिलाएं एवं किशोरियां महारानी की सहेलियां बन गई और महारानी ने उन्हें अपने अश्वारोहण और शस्त्राभ्यास में सम्मिलित कर लिया। आगे चलकर इन सब सहेलियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में महारानी का साथ दिया।

सन् 1852 में महारानी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया जो तीन महीने का होकर चल बसा। इस घटना से महाराज ने बिस्तर पकड़ लिया अतः रानी ने महाराज, अपने पिता तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों की सलाह से सन् 1853 में एक निकट सम्बन्धी के पुत्र आनन्द राव को दत्तक पुत्र एवं राज्य का उत्तराधिकारी बनाया। परम्परा के अनुसार बालक को नया नाम दामोदर राव दिया गया। धार्मिक अनुष्ठान के बाद 19 नवम्बर को जो राजपत्र गवर्नर जनरल के पास भेजा गया उस पर सब नाते-रिश्तेदारों और दरबारियों के अतिरिक्त कप्तान एलिस तथा कई राजाओं ने भी हस्ताक्षर किये थे। उसके मात्र दो दिन बाद 21 नवम्बर को महाराज का निधन हो गया। लार्ड डलहौजी ने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इंकार करते हुए झाँसी राज्य को अंग्रेजी राज्य के अधिकार ले लिया। रानी को 5 हजार रुपये की पेंशन और रहने के लिये रानी महल दिया गया। रानी क्रोध से भर उठी और घोषणा की ‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी।’ महारानी ने दत्तक पुत्र दामोदर राव की ओर से राजमाता के रूप में झाँसी का शासन संभाल लिया और अपने विश्वासपात्र नागरिकों को उसमें विशेष जिम्मेदारियाँ सौंपी।

अब झाँसी पर आक्रमण करने के लिये सर ह्यूरोज को इंग्लैण्ड से विशेष रूप से बुलाया गया ह्यूरोज ने 21 मार्च 1858 को झाँसी को घेर लिया। महारानी की वीरता और कुशल नेतृत्व के कारण अंग्रेजों को घोर युद्ध करना पड़ा। रानी ने अपनी ओजस्वी वाणी से बुन्देलों की वीरता को जगाया और मार्च 23 से 31 तक के युद्ध में झाँसी की सेना बहादुरी से लड़ती रही परन्तु दो विश्वासघातियों ने अंग्रेज सेना को ओरछा दरवाजे से नगर में घुसा दिया। नगर में घुसते ही सेना ने भीषण नरसंहार और अग्निकांड शुरु कर दिया। तब महारानी की सहेली झलकारी बाई ने उन्हें दल-बल सहित झाँसी से निकल कर कालपी जाने को कहा। निरन्तर सौ मील घोड़ा दौड़ाते हुए रानी कालपी पहुंची वहाँ उनका घोड़ा थककर मर गया कालपी से महारानी ग्वालियर पहुंची यहाँ वह विजयी तो हुई पर अंग्रेजों की सेना ने उन्हें घेर लिया।

18 जून को विप्रेडियर स्मिय ने मोर्चा बदल-बदल कर टिक्स और हेनेज के नेतृत्व में युद्ध किया गया. पीछे से यूरोज भी आ गया और रानी दुश्मनों से घिर गई। घिरी होने पर भी यह शत्रु सेना को पार कर आगे बढ़ गई परन्तु आगे नाला आ गया और नया पोड़ा नाले को पार न कर सका, इतने में कई अंग्रेज घुड़सवार आ पहुँचे और महारानी पर चारों ओर से वार होने लगे।

मृत्यु के कगार पर पहुँची महारानी ने असह्य पीड़ा सहते हुए अपने साथियों को आदेश दिया कि मेरी मृत देह को गोरों के हाथ न पढ़ने दें। घायल रानी को पास ही में साधु गंगादास की कुटिया में ले जाया गया जहाँ रानी ने प्राण त्याग दिये। झोपड़ी में ही चिता बनाकर रानी का दाहसंस्कार कर दिया गया। जब तक अंग्रेजों की सेना पहुँची। रानी की देह पंचतत्वों में विलीन हो चुकी थी। ह्यूरोज ने महारानी की मुक्त कंठ से सराहना करते हुए कहा समस्त बागियों में झाँसी की रानी सर्वाधिक वीर और कुशल योद्धा थी।