विदुषी उभय भारती

मिथिला क्षेत्र अपने सांस्कृतिक ज्ञान के विभिन्न रूपों के लिये प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध था। मिथिला में एक से एक पंडित दूर-दूर से आते थे। वहाँ कई कई दिन तक चलने वाले शास्त्रार्थ में जीवन जगत से सम्बन्धित विषय पर वाद विवाद होता था। विजयी पंडितों को विशेष सम्मान मिलता था। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य मिथिला के महापंडित मंडन मिश्र के ज्ञान की ख्याति सुनकर उनके गाँव जा पहुँचे। वहाँ कुएं पर पानी भर रही महिलाएं संस्कृत में वार्तालाप कर रही थी, आचार्य शंकर के शिष्य ने उनसे पूछा- ‘मंडन मिश्र का घर कहाँ है?’ एक स्त्री ने बताया जिस दरवाजे पर तोते शास्त्रार्थ कर रहे हों, वही मंडन मिश्र का घर होगा।’ एक द्वार पर सचमुच तोते शास्त्रार्थ कर थे। वहीं मंडन मिश्र का घर था। शंकराचार्य ने शिष्यों सहित पं. मंडन मिश्र के घर प्रवेश किया। मंडन और उनकी पत्नी उभय भारती ने उनका स्वागत-सत्कार किया। आस पड़ोस के पंडित भी आ पहुँचे। शंकराचार्य ने मंडन मिश्र से कहा कि वे विषाद रूप भिक्षा लेने के लिये उनके पास आए हैं। मण्डन मिश्र ने स्वीकार किया और दोनों के बीच शास्त्रार्थ के लिये समय निर्धारित किया गया।

सभी विद्वानों के अनुसार भारती दोनों के बीच होने वाले शास्त्रार्थ की निर्णायक बनायी गई। मंडन और शंकर के बीच 21 दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा। आखिर में मंडन शंकर के सवाल का जवाब नहीं दे पाए और हारना पड़ा। उभय भारती ने घोषणा की कि अभी उनकी आधी हार हुई है, मैं उनकी पत्नी हूँ, अर्द्धांगिनी हूँ, मेरी हार के साथ ही उनकी पूरी हार होगी। इतना कहते हुए भारती ने शंकर को शास्त्रार्थ की चुनौती दी।

शंकर व भारती के बीच कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। भारती ने शंकर के हर प्रश्न का उत्तर दिया, ज्ञान में वह शंकर से किसी प्रकार भी कम नहीं थी। 21वें दिन भारती ने शंकर से काम संबंधी प्रश्न किया। शंकर जवाब देने की स्थिति में नहीं थे, क्योंकि वे ब्रह्मचारी थे और गृहस्थ जीवन का उन्हें कोई अनुभव नहीं था। उन्होंने भारती से जवाब के लिये छः माह का समय मांगा। और शंकराचार्य वहाँ से चले गये।

कहा जाता है कि महेश्वर के पश्चिम दिशा में स्थित एक गुफा में जाकर अपना शरीर छोड़ दिया और अपने शिष्यों को वहीं रुकने को कहा। सूक्ष्म रूप धारण कर वे आकाश में भ्रमण करने लगे। इस दौरान उन्होंने राजा अमरुक के मृत शरीर को देखा, तब आचार्य शंकर ने सूक्ष्म रूप के साथ राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया और गृहस्थ जीवन के तथ्यों को जाना। गृहस्थ जीवन का व्यवहारिक ज्ञान लेकर उन्होंने राजा के शरीर को छोड़ दिया, और पुनः गुफा में पहुँच अपने शरीर में प्रवेश किया। लौटकर उभय भारती व शंकराचार्य के बीच पुनः शास्त्रार्थ हुआ। अब की बार शंकराचार्य ने उभय भारती को पराजित किया। अब उभय भारती ने आदि शंकराचार्य को विजयी घोषित किया।

उभय भारती इतनी विदुषी थी कि प्रकाण्ड विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ में निर्णायक के लिये उन्हीं को चुना गया। वह इतनी सत्याश्रयी थी कि अपने पति की हार और शर्त अनुसार संन्यास ग्रहण में भी अटल रहीं। उभय भारती को सरस्वती का अवतार माना जाता है। इनके शारदा और सरस्वती नाम भी मिलते हैं। आज भी शास्त्रार्थ स्थल पर आद्य शंकराचार्य महापंडित मंडन मिश्र और विदुषी उभय भारती की चरण पादुकाएं मौजूद है।

कहा जाता है कि उभय भारती से शास्त्रार्थ के बाद शंकराचार्य ने पहले कश्मीर और फिर शृंगेरी में शारदा के मंदिर बनवाए, उन मंदिरों में स्थापित देवी प्रतिमा के एक हाथ में पुस्तक है, जिस कारण यह सरस्वती की मूर्ति ही मानी जाती है। लेकिन दूसरे हाथ में बर्तन और एक तोता भी है जो गृहस्थ और वैदिक जीवन के प्रतीक हैं, उभय भारती शारदा के नाम से शंकराचार्य ने शारदा पीठ का नामकरण किया।

कण्णगी

दूसरी शताब्दी के तमिल महाकवि ‘इलंगो’ के महाकाव्य ‘शिलप्पाधिगारम्’ की नायिका ‘कण्णगी’ का तमिलनाडु में वंजीनगरम् नामक स्थान पर अति प्राचीन मंदिर है। प्रदेश भर में अनेक स्थानों पर कण्णगी के मंदिर मिलते हैं।

महासती कण्णगी चोल राज्य के कावेरी पट्टण नगर के एक व्यापारी ‘मानागयन’ की इकलौती बेटी थी। उसके रूप और गुणों की सारे राज्य में चर्चा थी। कावेरी पट्टण के ही एक और धनाढ्य व्यापारी माचातुबान के सुन्दर, के संगीत प्रेमी, एकमात्र पुत्र कोवलन के साथ कण्णगी का विवाह हुआ। विवाह में कण्णगी को उसके माता-पिता ने नूपुरों का एक जोड़ा दिया, जिसमें से प्रत्येक में नौ माणिक्य जड़े थे। कण्णगी और कोवलन का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा।

कावेर पट्टण में बड़ी धूमधाम से अटठाइस दिन तक चलने वाला इन्द्रोत्सव में मनाया जाता था। जिसमें चित्रापति नामक एक महान् संगीतज्ञ की नर्तकी पुत्री माधवी पर कोवलन न्यौछावर हो गया। वह माधवी के प्रेम में कण्णगी को भूल गया। कण्णगी दुखी होकर साज-शृंगार से दूर तपस्विनी का जीवन जीती रही और कोवलन माधवी के प्रेम में डूबा रहा और सारा धन लुटाता रहा।

कुछ वर्षों बाद इन्द्रोत्सव के अवसर पर माधवी द्वारा अपने गीत में चोलराज की प्रशंसा सुनकर कोवलन को लगा कि माधवी चोलराज से प्रेम करने लगी है। कोवलन ने किसी से कुछ नहीं कहा और चुपचाप उठकर घर में कण्णगी के पास चला आया। घर में गरीबी की दशा को देखकर कण्णगी ने अपने माता-पिता से प्राप्त नूपुर बेचकर कहीं दूर जाकर नये सिरे से जीवन शुरु करने की सलाह दी। दोनों मदुरा की ओर चल पड़े। मदुरा में कण्णगी ने कोवलन को नूपुर बेचकर धन लाने को कहा। अगले दिन प्रभात में कोवलन नुपूर लेकर मदुरा के पण्य चौक की ओर चल पड़ा।

देवयोग से मदुरा राजपरिवार के खानदानी स्वर्णकार ने लोभवश महारानी का एक नुपूर चुरा लिया था, जिसकी खोज चल रही थी। कोवलन के हाथों में

वैसा ही नुपूर देख चालाक स्वर्णकार ने सिपाहियों से कोवलन को बंदी बनवा दिया और इसकी सूचना राजा को दी गई। सिपाहियों की बात पर विश्वास कर राजा ने पूरी बात सुने बिना ही कोवलन को मृत्यु दण्ड सुना दिया और उसका सिर काट दिया गया।

कोवलन रात को घर नहीं लौटा और सुबह किसी अपरिचित व्यक्ति के वध का समाचार सुना तो कण्णगी राजद्वार के समीप दौड़ी गई। अपने पति को पहचान कर वह उसकी मृत देह पर गिरकर विलाप करने लगी। फिर वह पति के कटे हुए सिर को लेकर राजमहल के बाहर प्रांगण में जा पहुँची और उसके दुख और क्रोध से भरी चीखों से सारा वातावरण गूंज उठा। उसने गर्जना की, “मूर्ख राजा, तूने मेरे भोले-भाले पति की हत्या करवायी है। नूपुर मंगवाकर परीक्षण तो करवाया होता। कोवलन से मिले नूपुर में माणिक्य जड़े थे और रानी के नूपुर में में मोती।” तब कण्णगी ने माणिक्य जड़ित दूसरा नूपुर राजा को दिखाया। इस बीच स्वर्णकार के आभूषण भण्डार से रानी का खोया हुआ नूपुर भी मिल गया। राजा अपने द्वारा किये गये अन्याय को सहन न कर सका और आत्मग्लानि के कारण हृदयाघात से उसका शरीरान्त हो गया। रानी भी अपने पति की अचानक मृत्यु और बदनामी न सहन कर सकी और उसने भी प्राण त्याग दिये।

सहसा कण्णगी पति का कटा शीश हाथ में लेकर दहाड़ी- अन्यायी मूढ़ मदुरा नरेश का यह नगर भस्म हो जाये। शुद्ध सात्विक आचरण और तपोमय पवित्र जीवन जीने वाली साध्वी कण्णगी की शापवाणी तत्काल सत्य सिद्ध हुई। कण्णगी जलते हुए मदुरा नगर को छोड़कर चेर राज्य की राजधानी वंजीनगर पहुँची। वहाँ ऊँचे पहाड़ पर एक वट वृक्ष के नीचे अन्न जल त्यागकर चौदहवें दिन स्वर्ग से उतरे दिव्य रथ पर सवार हो कर चली गई।

अवन्तीबाई लोधी

देश और आन के लिये मिटो या फिर चूड़ियाँ पहनों । तुम्हें धर्म और ईमान की सौगन्ध जो इस कागज का पता दुश्मन को दो ॥

किसानों, देशी सैनिकों, जमीदारों एवं मालगुजारों को अपने हाथ से पत्र लिखकर गाँव-गाँव क्रांति का संदेश भिजवाने वाली महिला थी- मण्डला, मध्य प्रदेश के रामगढ़ राज्य की रानी अवन्तीबाई लोधी अवन्ती बाई एक ऐसी राष्ट्र नायिका है जिन्हें इतिहास में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है। परन्तु ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उनके संघर्ष एवं बलिदान से संबंधित ऐतिहासिक सामग्री समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है। अवन्तीबाई का जन्म 16 अगस्त 1831 को नर्मदा के एक सुन्दर ग्राम मनकेड़ी जिला सिवनी के 187 गाँवों के जमींदार जुझार सिंह के परिवार में हुआ। इनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, तलवारबाजी, शिकार एवं घुड़सवारी आदि का प्रशिक्षण सब मनकेड़ी में ही हुआ। युवा होने के साथ-साथ उनके साहस और गुणों की चर्चा समस्त घाटी में होने लगी। तब अपनी पुत्री के राजसी गुणों के महत्त्व को समझते हुए जुझार सिंह ने उसका सजातीय विवाह रामगढ़ जिला मण्डलों के राजा लक्ष्मण सिंह के पुत्र राजकुमार विक्रम सिंह से सन् 1849 में शिवरात्रि के दिन कर दिया और वह रामगढ़ की राजवधू बन गई।

1850 में राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के बाद विक्रमजीत राजगद्दी पर बैठे। उनकी रुचि पूजापाठ में बहुत अधिक थी और राजकाज में उनका मन कम ही लगता था। वे अब दो पुत्रों के पिता बन चुके थे। कुछ समय पश्चात् वे अर्द्ध विक्षिप्त हो गये और दोनों पुत्र नाबालिग होने के कारण राज्य का सारा भार रानी के कंधों पर आ गया। नाबालिग उत्तराधिकारी होने की अवस्था में लार्ड डलहौजी ने रामगढ़ रियासत को 13 सितम्बर 1851 को कोर्ट ऑफ वार्डस’ के अधीन कर राजपरिवार को पेंशन दे दी। इसी बीच 1857 को राजा का देहान्त हो गया। अवन्तीबाई लोधी यह जानती थी कि देर-सबेर अंग्रेजों से मुकाबला होगा ही अतः उसने आसपास के देशभक्त सामन्तों तथा रजवाड़ों से सम्पर्क किया। अनेक

उनका साथ देने को तैयार हो गये देश में 10 मई 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत की तैयारी चल रही थी। रानी ने भी क्रांतिकारी संगठन को तैयार करने में उत्साह का प्रदर्शन किया। रामगढ़ में भी क्रांति का प्रतीक लाल कमल और रोटी घर-घर घूम रही थी।

अंग्रेज सेनापति वाशिंगटन ने उनकी तैयारी देख उन पर हमला बोल दिया। रानी ने बिना घबराए खैरी गाँव के पास वाशिंगटन को घेर लिया। रानी के रणकौशल से अंग्रेजों के हौंसले पस्त होने लगे। वाशिंगटन रानी को पकड़ने के लिये अपने घोड़े सहित रानी के पास आ पहुँचा तो रानी ने तलवार से घोड़े की गर्दन काट दी। वाशिंगटन नीचे गिर पड़ा और प्राणों की भीख मांगने लगा तो रानी ने दयाकर उसे छोड़ दिया।

अभयदान पाने के बाद धूर्त वाशिंगटन ने रामगढ़ पर एक बार फिर आक्रमण कर दिया और किले को घेर लिया। तब रानी कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ एक गुप्त द्वार से बाहर निकल गई। इसकी सूचना वाशिंगटन को मिल गई और वह एक टुकड़ी लेकर रानी के पीछे दौड़ा। देवहारगढ़ के जंगल में दोनों की मुठभेड़ हुई। वह 20 मार्च 1858 का दिन था। रानी रणचण्डी का रूप धारणकर शत्रुओं पर टूट पड़ी। अचानक एक फिरंगी के वार से रानी का दाहिना हाथ कट गया रानी ने एक झटके से अपने बाएं हाथ से कमर से कटार निकाली और सीने में घोंप ली और इतिहास में अमर हो गई। रानी के लिये श्रद्धांजलि स्वरूप हम यही कह सकते हैं

समर में घाव जो सहता, उसी का मान होता है, दिया इस वेदना में भी मधुर वरदान होता है, सृजन में झेलता है, चोट जो छैनी हथौड़े का वही पाषाण मंदिर में बना भगवान होता है।

जीजाबाई

माँ से बड़ा कोई शब्द नहीं, माँ से बड़ा कोई मान नहीं। माँ सन्तान के लिये गुरु, ईश्वर, व मार्गदर्शक बनती है। राजा भरत और भीष्म आदि को भी उनकी माताओं द्वारा दी गई शिक्षाओं ने अजर-अमर बनाया और ऐसी ही तपस्विनी और वीर प्रसूता थी जीजाबाई, छत्रपति शिवाजी की माता ।

उनकी सम्पूर्ण शक्ति, योग्यता और गुणों का ही प्रतिरूप थे वीर शिवा । जीजाबाई का सम्पूर्ण जीवन साहस और त्याग से भरा हुआ था। वे अत्यंत स्वाभिमानी महिला थीं। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना रहा। अपने इस लक्ष्य में वे सफल भी रहीं।

उस समय हिन्दुस्तान के आकाश पर मुगलों का सूर्य चमक रहा था। मुगलों के शासन में हिन्दू धर्म बुरी तरह से संकट में पड़ा चुका था। हिन्दुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था। हिन्दू स्त्रियों की अस्मिता सुरक्षित नहीं थी। उस सारी स्थिति से अवसन्त्र जीजाबाई मन ही मन या दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं कि मेरी संतान यवनों के अत्याचारों से मुक्ति दिलायेगी।

ऐसी वीरमाता जीजाबाई का जन्म विदर्भ प्रान्त के सिंदखेड़ नामक गाँव में लखुजी जाधव और महालसाबाई के घर सन् 1596 में हुआ। वे चार भाईयों की इकलौती बहन थी। उनके व्यक्तित्व में एक ओर पिता सा साहस और स्वाभिमान था वहीं दूसरी ओर माँ की सहिष्णुता और कर्तव्य पराणयता थी। 6 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह मालोजी भोंसले के 8 वर्षीय पुत्र शाहजी भोंसले से हुआ। उनके पिता और पति के परिवारों में प्रारम्भ में तो मित्रता थी किन्तु आगे चलकर में यह मित्रता कटुता में बदल गई क्योंकि उनके पिता मुगलों के पक्षधर थे और पति निजाम के।

एक बार पिता लखुजी मुगलों की ओर से लड़ते हुए शाह जी का पीछा करते हुए शिवनेर पहुँचे। वहाँ शाहजी नहीं थे और बेटी जीजाबाई का सामना लखुजी से हुआ। उस समय बेटी ने पिता से कहा- मैं आपकी शत्रु हूँ क्योंकि मेरा पति आपका शत्रु है। दामाद के बदले कन्या ही हाथ लगी है जो करना चाहो कर लो। इस पर पिता ने उन्हें अपने साथ मायके चलने को कहा किन्तु बेटी का उत्तर था- ‘आर्य नारी का धर्म पति के आदेश का पालन करना है।’

19 फरवरी 1630 को जीजाबाई ने शिवनेर के किले में हिन्दू राज्य के संस्थापक शिवाजी को जन्म दिया। बालक शिवा का लालन-पालन वीरोचित संस्कारों के अनुरूप करते हुए शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा के लिये दादा कोंडदेव को नियुक्त किया गया। स्वयं भी रामायण, महाभारत और वीरों की गौरव-गाथायें सुनाकर बालक के मन में हिन्दू भावना के साथ वीर-भावना की भी प्रतिष्ठा की। में वे प्रायः कहा करती थीं- ‘यदि तुम संसार में आदर्श हिन्दू बनकर रहना चाहते हो तो स्वराज की स्थापना करो, देश से यवनों और विधर्मियों को निकालकर हिन्दू धर्म की रक्षा करो।’

जीजाबाई अपने पुत्र से अपार प्रेम करती थीं, परन्तु उतना ही प्यार उन्हें अपने देश से भी था। इसीलिये आवश्यकता पड़ने पर देश धर्म की रक्षा के लिये बड़े से बड़े संकट से लड़ने की अपने पुत्र को स्वयं आज्ञा देती थी।

अन्ततः ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी 1731 वि. सं. अर्थात् 6 जून 1674 को शिवाजी महाराज ने छत्रपति की उपाधि धारण कर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के रूप में हिन्दू शक्ति केन्द्र खड़ा किया। अपने कर्तव्य और स्वप्न को पूरा देखकर ही हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के बारहवें दिन माता जीजाबाई ने महाप्रयाण किया। उनके व्यक्तित्व को श्रद्धांजलि स्वरूप हम यही कह सकते हैं कि

माता की रक्त शिराओं में जब चित्र देश का बनता है, जीजाबाई के आंगन में वीर शिवा तब हँसता है।

राजकुमारी रत्ना

जैसलमेर के महाराजा रत्नसिंह को चिंतित मुद्रा में बैठे देखकर उनको एकमात्र पुत्री रत्ना ने उनकी चिंता का कारण जानना चाहा तो पता चला कि गुप्तचरों की सूचना के अनुसार दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर जोधपुर के महाराज को परास्त करने के बाद उनके राज्य के पर आक्रमण करने आ रहा है। आमने-सामने के युद्ध में हाज निश्चित है, दुर्ग के भीतर रहकर लोहा लें तो खाद्यान्न की समस्या मुँह फाड़े खड़ी है।

तब रत्ना ने ही इस समस्या का समाधान सुझाया कि आप अपने सैनिकों के साथ दुर्ग से बाहर निकल जाइए और दुर्ग की रक्षा के लिये कुछ सौ सैनिक छोड़ दीजिये। पिता ने गंभीर होकर कहा कि दुर्ग की रक्षा कौन करेगा? उनका कोई पुत्र भी नहीं था। तब बेटी ने ही पिता को साहस बढ़ाते हुए कहा कि मैं दुर्ग की रक्षा करुँगी। आप निश्चिन्त होकर सेना लेकर किले से प्रस्थान कीजिये। अगले दिन सूरज की पहली किरण के साथ ही रणबाँकुरों की वाहिनी दुर्ग से निकलकर मरु प्रदेश की ओर कूच कर गयी। उनके जाते ही रत्ना ने दुर्ग की रक्षा का भार अपने कंधों पर संभाल लिया।

एक दिन अचानक मलिक काफूर की सेना ने दुर्ग को घेर लिया उसने अपने सैनिकों को दुर्ग पर जोरशोर से आक्रमण करने की आज्ञा दी। किन्तु रत्ना भी पुरुष वेश में कमर में तलवार बाँधे, हाथ में धनुष बाण लिये किले में घूमती रहती। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से ही ऐसी मोर्चा बंदी की कि टिड्डी दल की तरह उमड़ कर आने वाले शत्रु दल को हर बार पीछे हटना पड़ता। मलिक काफूर की हर चाल का उत्तर रत्ना इस कुशलता से तुरन्त देती थी कि वह अपना सा मुँह से लेकर रह जाता। अब वह कूटनीति चालें चलने को विवश हुआ। एक दिन शत्रु सैनिक सांझ के धुंधलके में दुर्ग की दीवार पर चढ़ने लगा। रत्ना बुर्ज पर खड़ी उसके क्रियाकलाप देख रही थी। उसने कड़क कर पूछा, ‘कौन है?’ ‘आपके पिता का संदेशवाहक।’ ‘क्या संदेश लाए हो, बोलो। नहीं तो प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।’ रत्ना की चेतावनी को अनसुनी कर वह छाया दीवार पर चढ़ती ही रही। तब रत्ना के एक बाण से शत्रु सैनिक धराशायी हो गया।

इसके बाद मलिक काफूर ने द्वार रक्षक को बहुत से सोने का लालच देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। ईमानदार रक्षक ने रत्ना को सारी घटना सुना दी ।। राजकुमारी रत्ना ने द्वाररक्षक के ईमानदारी की प्रशंसा एवं सराहना की और आज्ञा दी कि रात में द्वार खोलकर मलिक काफूर और उसके चुनिंदा सैनिकों को भीतर लेकर द्वार बंद करके गुप्त द्वार से मेरे पास आ जाना। द्वार रक्षक ने आज्ञा का पालन किया और मलिक काफूर सैनिकों सहित चूहेदानी में फँसकर रह गया। जैसलमेर का घेरा डाले महीनों बीतने पर भी किला तो हाथ नहीं आया वरन् सेनापति भी एक लड़की से मात खाकर बंदी हो गया। यह समाचार जब अलाउद्दीन खिलजी तक पहुँचा तो उसने जैसलमेर जीतने का इरादा ही छोड़ दिया और महाराज रत्न सिंह के पास दूत भेजकर संधि कर ली।

एक दिन राजकुमारी रत्ना ने दुर्ग की प्राचीर पर खड़े-खड़े देखा कि सुल्तान की सेना अपने डेरे-डण्डे उखाड़कर जा रही है और सुदूर मरु प्रदेश से भगवा ध्वज फहराती राजपूत सेना अपने दुर्ग की ओर बढ़ी चली आ रही है। राजा रत्न सिंह सबसे आगे घोड़े पर बैठे गर्व से सीना फुलाए जैसलमेर लौट रहे हैं। दुर्ग स्वागत सूचक तुरही बज उठी। दुर्ग के द्वार खोल दिये गये। अब राजा ने रत्ना की पीठ थपथपाते हुए कहा- सचमुच तूने देश की लाज रख ली। जिस देश में ऐसी वीर और बुद्धिमती कन्याएं हों उसे जीत पाना किसी के वश की बात नहीं। आज मेरा मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया।