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भारत की महान नारियाँ – भाग 1

सती अनुसूइया

मातु पिता भ्राता हितकारी मितुप्रद सब सुनु राजकुमारी॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही

वनवास के समय जब राम, लक्ष्मण और सीता जी सहित महर्षि अत्रि के आश्रम पहुंचे तो वहाँ उनकी पत्नी अनुसूइया जी ने सीताजी को यही सुमंत्र दिया कि माता, पिता, भाई सभी हितकरने वाले होते हैं परन्तु वह सुख सीमित है। असीम सुख तो पति ही देने वाला है। उन्होंने बताया- वैदेही! बहुत विचार करने पर भी मैं पति से बढ़कर कोई हितकारी बन्धु नहीं देखती तपस्या के अविनाशी फल की भांति वह इस लोक और परलोक में सर्वत्र सुख प्रदान करने वाला है।

माता सीता को पतिव्रता धर्म की शिक्षा देने वाली सती अनुसूईया का भारतवर्ष की सती साध्वी नारियों में अग्रणी स्थान है। मनु की पुत्री देवहति और ब्रह्मर्षि कर्दम की पुत्री के रूप में जिस पुत्री ने जन्म लिया उसका नाम रखा गया अनसूया अनुसूइया अर्थात जिसके मन में किसी के प्रति असूय (ईर्ष्या) भाव न हो। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि उन्हें पति रूप में प्राप्त हुए। अपनी सतत सेवा व पावन प्रेम से इन्होंने पति हृदय को जीत लिया था। पतिव्रता और तपस्विनी होने के साथ-साथ नारी जाति के परम कल्याण का साधन पति सेवा को ही मानती थी। अपने पातिव्रत्य धर्म के कारण सती कहलाने वाली अनुसूइया के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है।

एक बार विचरण करते हुए नारद जी ने त्रिदेवियों- लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती को सती और पतिव्रता पत्नी अनुसूइया की प्रशंसा करते हुए बताया कि उनके समान पवित्र और पतिव्रता तीनों लोकों में नहीं है। त्रिदेवियों ने उसे अपना अपमान समझा और अपने-अपने पतियों त्रिदेवों से हठ कर उन्हें अनुसूइया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिये बाध्य कर दिया। ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों देव मुनि वेश में महर्षि अत्रि की अनुपस्थिति में उनके आश्रम पर पहुँचे। अतिथि रूप में तीनों मुनियों को आते देखकर पतिव्रता अनुसूइया ने उनका स्वागत सत्कार किया। किन्तु मुनियों ने देवी के आतिथ्य को अस्वीकार करते हुए कहा

कि देवी! हम तभी आपका आतिथ्य स्वीकार करेंगे यदि आप निर्वस्त्र होकर हमारा आतिथ्य सत्कार करेंगी।’ यह सुनकर पतिव्रता अनुसूइया को शंका हुई कि ये मुनि हैं या कोई छ्दमवेशधारी, और उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सब रहस्य समझ में आ गया। बोली- मैं आपका निवस्त्र होकर सत्कार करूंगी। यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ, मैंने कभी भूल से भी या स्वप्न में भी कामभाव से चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छः माह के बालक बन जाये।

पतिव्रता का इतना कहना था कि तीनों (त्रिदेव) छः-छः महीने के दूध पीने वाले बच्चे बनकर पालने पर कुलबुलाने लगे। माता ने निवस्त्र होकर उन्हें स्तनपान कराया और पालने पर सुला दिया। इतने में ही महामुनि अत्रि भी आश्रम में आ गए और तीनों सुकुमार बालकों के विषय में पूछा। तब देवी ने बताया कि तीनों आपके ही बालक हैं। भगवान ने स्वतः हम पर कृपा की है।

इधर तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं, अब वे तीनों ही बड़ी चिंतित हुईं। उन्होंने नारद जी से अपने पतियों के विषय में जानना चाहा। तब नारद जी ने बताया कि तीनों देव बालक बने देवी अनुसूइयारूपी माता के मातृत्व का आनन्द ले रहे हैं। आप चाहें तो अपने पति को दोबारा पाने के लिये माता अनुसूइया से विनती करें। पश्चाताप से सभी पाप धुल जाते हैं।

तीनों देवियाँ आश्रम पहुँची। अनुसूईया के चरणों में पड़कर अपनी गलती के लिये क्षमा याचना की तो उन्होंने तीनों को क्षमा कर तीनों देवों को उनके वास्तविक रूप प्रदान किया। माता की पूजा से प्रसन्न तीनों देवों ने उनसे मनवांछित वरदान मांगने को कहा। त्रिदेव की बात सुनकर अनुसूइया बोली प्रभु आप तीनो मेरी कोख से जन्म लें। तभी से वह माँ सती अनुसूइया के नाम से प्रख्यात हुई तथा कालान्तर में भगवान दत्तात्रेय के रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा और दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म माता के अनुसूइया के गर्भ से हुआ।

सती सावित्री

पौराणिक मान्यता के अनुसार मद्रदेश के धर्मात्मा राजा अश्वपति ने अठारह वर्ष तक सावित्री देवी की आराधना करके एक कन्या को प्रसाद स्वरूप प्राप्त किया। कन्या का नाम देवी के ही नाम पर सावित्री रखा गया। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते सावित्री के दिव्य तेज समान कोई भी राजा या राजकुमार उसका वरण योग्य नहीं मिला। अन्ततः चिन्तित पिता ने सावित्री को अपने योग्य वर की खोज में इस विस्तृत जगत में भ्रमण के लिये भेज दिया।

सावित्री देशाटन से वापस लौटी और पिता को सारा वृत्तान्त सविस्तार बताते हुए शाल्वनरेश घुमत्सेन के पुत्र सत्यवान को मन से पति चुनने की बात बताई। एक दिन महर्षि नारद मद्रराज की सभा में पधारे और राजा ने उन्हें यह समाचार बताया। यह सुनकर महर्षि नारद ने बताया कि सत्यवान सर्वगुण सम्पन्न युवक है। परन्तु आज से ठीक एक वर्ष बाद उसकी आयु समाप्त हो जायेगी और उसे देहत्याग करना पड़ेगा। यह सब जानकर भी सावित्री ने सत्यवान के अतिरिक्त किसी अन्य को अपना पति स्वीकारने से इंकार कर दिया। तब राजा अश्वपति ने राजर्षि घुमत्सेन के आश्रम पर जाकर उनसे भेंट कर समस्त वृत्तान्त सुनाया और सावित्री सत्यवान को परिणय सूत्र में बाँधा।

अब सावित्री ससुराल में रहते हुए अपने सभी कर्तव्यों का पूर्ण मनोयोग से पालन कर रही थी। समय का चक्र अपनी गति से घूम रहा था कि महर्षि नारद के कथनानुसार वही काल और मुहूर्त समीप आ गया था। जब सत्यवान की इहलीला सम्पन्न होने को थी। सावित्री तो एक-एक दिन गिन रही थी और तीन दिन पहले से ही निराहार व्रत कर आश्रम के सभी आदरणीय वृद्धजनों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण किया।

प्रातःकाल सत्यवान जब कंधे पर कुल्हाड़ी रख वन से लकड़ी लाने के लिये तैयार हुआ तो सास-ससुर की आज्ञा लेकर सावित्री भी साथ चल दी। वन में पहुँचकर सत्यवान लकड़िया काटने लगा। लकड़ी काटते-काटते पसीना आकर तेज सिर दर्द होने पर वह पत्नी के पास आकर बोला- प्रिये! आज सारा शरीर टूट रहा है। खड़े रहने की भी शक्ति नहीं है। अब मैं कुछ देर सोना चाहता हूँ| सावित्री पति का मस्तक गोद में रखकर पृथ्वी पर बैठ गई। इतने में एक पुरुष दिखाई दिया जो हाथ में पाश लिये सत्यवान के पास खड़ा उसी की ओर देख रहा था। उस अद्भुत व्यक्ति को देख सावित्री ने पति का मस्तक भूमि पर रख खड़े होकर उसे प्रणाम करके कहा- आप कोई देवता जान पड़ते हैं, अपनी इच्छा बताइये कि आप क्या करना चाहते हैं? वह कोई और नहीं, साक्षात यमराज थे। यमराज ने सावित्री को बताया कि तेरे पति की आयु पूरी होने पर मैं उसे लेने आया हूँ। तब यमराज ने सत्यवान के शरीर से जीव निकाला और उसे ले दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। यह देख दुखातुर सावित्री भी यमराज के पीछे चल दी। तब यमराज द्वारा रोके जाने पर भी सावित्री रुकी नहीं और बोली नारी के लिये पति का अनुसरण ही सनातन धर्म है। तब यमराज ने कहा- सावित्री ! तेरी धर्मानुकूल बात सुन मुझे प्रसन्नता हुई है। अतः सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई भी वर मांग

तब सावित्री ने यमराज के पीछे चलते हुए बारी-बारी से चार वर मांग लिये पहला श्वसुर की नेत्र ज्योति, दूसरा ससुर का खोया हुआ राज्य, तीसरा अपने पिता के लिये सौ औरस पुत्र और अन्तिम अपने लिये भी कुल की वृद्धि करने वाले सौ औरस पुत्र। परन्तु फिर भी सावित्री को आता देख यमराज बोले सावित्री मैं तुम्हारे पति भक्ति एवं धर्मानुकूल बातों से बहुत प्रसन्न हूँ तुम चाहो तो एक वरदान और मांग लो।

सावित्री ने कहा- ‘भगवन! अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिये। आप मुझे सौ पुत्र होने का वरदान दे चुके हैं, उसकी सिद्धि पति के बिना कैसे हो सकती है? यमराज वचनबद्ध हो चुके । उन्होंने सत्यवान को मृत्यु पाश से मुक्त कर दिया और नवीन आयु प्रदान की।

इस प्रकार सती सावित्री ने अपने पतिव्रत्य के प्रताप से पति को भी मृत्यु के मुख से लौटाया तथा वह पतिकुल और पितृकुल दोनों की अभिवृद्धि में सहायक हुई।

शकुन्तला

शकुन्तला राजर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री थी। शकुन्तला को जन्म देकर मेनका उसे धरती पर छोड़कर स्वर्गलोक को लौट गयी। नदी किनारे वन में शकुन्त पक्षियों ने उसके ऊपर छाया कर उसकी रक्षा की। महर्षि कण्व ने उसे देखा और दयावश उठा लाये। शकुन्त पक्षियों की रक्षा के कारण कन्या का नाम शकुन्तला रखा गया। जी हाँ वही शकुन्तला जिसका पुत्र अपने बचपन में शेर के बच्चों के दाँत गिना करता था जो एक चक्रवर्ती सम्राट बना जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

महाराज दुष्यन्त एक बार शिकार के लिये निकले और हिरन का पीछा करते हुए महात्मा कण्व के आश्रम जा पहुंचे। उन्हें एक ब्रह्मचारी ने कण्वाश्रम में निमंत्रित किया जहाँ महाराज शकुन्तला के अपूर्व सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। शकुन्तला भी महाराज के प्रति आकर्षित हो चुकी थी महाराज ने विवाह का प्रस्ताव रखा। शकुन्तला ने कहा कि पिता कण्व की अनुपस्थिति में ऐसा करना उचित नहीं। महाराज के अति आग्रह करने पर शकुन्तला मान गई और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया। अपनी राजमुद्रिका देकर तथा शीघ्र ही राजधानी बुलाने का आश्वासन देकर महाराज दुष्यन्त लौट गए।

शकुन्तला एक दिन अपने पति के ध्यान में मग्न थी कि आश्रम में ऋषि दुर्वासा आ गये। शकुन्तला का ध्यान तो अपने पति के प्रति मग्न था। ऋषि दुर्वासा ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की परन्तु जब शकुन्तला का ध्यान नहीं टूटा तो उन्होंने क्रोधित होकर श्राप दे डाला कि जिसके ध्यान में पड़कर तू मेरे स्वागत को नहीं उठी, जा वह तुझे भूल जायेगा।” शाकुन्तला की तंद्रा भंग हुई, तो उसने ऋषि चरणों पर गिरकर शाप-मुक्ति हेतु क्षमा मांगी ऋषि ने उदारता दिखलाते हुए कहा कि किसी चिह्न के दिखलाने से राजा को स्मरण होगा और वह तुम्हें पुनः स्वीकार कर लेगा।

जब कण्व ऋषि लौटे तो शकुन्तला ने अपनी परम सखी अनसूया के माध्यम उन्हें सारी घटना बताई। स्नेहवश उन्होंने शकुन्तला के उस विवाह को स्वीकार कर लिया। समय बीतने पर शकुन्तला गर्भवती हुई तो पिता ने अब कन्या को आश्रम में रखना उचित नहीं समझा और दो शिष्यों के साथ शकुन्तला को महाराज के पास भेजा। दोनों शिष्य राजधानी पहुँचे। महाराज ने आश्रम का कुशल पूछा लेकिन शाप के कारण वे शकुन्तला को पहचान ना सके। शकुन्तला महाराज द्वारा दी गई मुद्रिका दिखाना चाहती थी परन्तु वह भी नदी में पानी पीते समय गिर गयी थी। उस की अनुनय-विनय का भी महाराज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपमानित करके उसे महल से निकाल दिया। अपमानित होकर शकुन्तला वन में लौट आयी और उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।

एक दिन महाराज दुष्यन्त बाग में टहल रहे थे कि एक मछुआरे ने आकर खबर दी कि मछली को काटते समय उसके पेट से यह राजचिह्न वाली एक अंगूठी प्राप्त हुई है। अंगूठी को देखते ही शाप का प्रभाव दूर हो गया और महाराज को शकुन्तला की याद आयी। अब उन्हें अपने किये पर बहुत पश्चाताप हुआ।

ऐसे ही दिन बीतते चले गये। देवासुर संग्राम में महाराज दुष्यन्त ने देवाताओं की ओर से युद्ध लड़ा और विजयी होकर लौटते समय एक वन में पहुँचे तो देखा कि एक आठ वर्षीय बालक सिंह शावकों के साथ खेल रहा है, उसके मुख मण्डल पर राजसी तेज है। राजा ने बालक की वीरता से प्रभावित होकर उससे पूछा कि उसके सौभाग्यशाली माता-पिता कौन हैं? बालक ने उत्तर दिया, ‘उसके पिता नहीं है, केवल माता है। और महाराज अपनी माता से मिलवाने के लिये आश्रम ले आया। बालक की माता को देखकर पता चला कि ये दोनों तो उन्हीं के पत्नी और पुत्र हैं।

शकुन्तला से क्षमा मांगते हुए महाराज दुष्यन्त ने पुत्र सहित अपने साथ चलकर राजमहल में रहने के लिये आग्रह किया। शकुन्तला ने कहा, ‘आप क्षमा मांगकर मुझे अपराधिनी न बनावें। आप मेरे आराध्य हैं। मैंने सदा आपके मंगल का ही चिन्तन किया है।’ शकुन्तला ने आश्रमवासियों से विदा लेकर अपने पति और पुत्र के साथ पतिगृह के लिये प्रस्थान किया। शकुन्तला का यह वीर बालक आगे चलकर भरत कहलाया।

ब्रह्मज्ञानिनी सुलभा

धर्मध्वज के नाम से प्रसिद्ध, मिथिलापुरी के राजा जनक को गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी संन्यास का सम्यक ज्ञान रूप फल प्राप्त हो गया था। वे देह में रहकर भी देह से परे थे इसलिये विदेह कहलाते थे। उन दिनों एक संन्यासिनी योग धर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस सम्पूर्ण जगत में विचरण करते हुए राजा जनक की प्रशंसा सुनकर मिथिला पहुँची- नाम था सुलभा । अर्थात् ब्रह्मज्ञानिनी सुलभा ।

लोगों के मुख से राजा जनक के संबंध में सुनी बातों द्वारा सुलभा ने राजा जनक के दर्शन का निश्चय किया और वह पलभर में मिथिलापुरी जा पहुँची। मिथिलापुरी में पहुँचकर संन्यासिनी सुलभा ने भिक्षा के बहाने मिथिला नरेश विदेहराज जनक का दर्शन किया।

तपस्विनी सुलभा का स्वागत कर राजा जनक ने उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया और पैर धुलाकर उनका यथोचित सत्कार किया। सुलभा मोक्ष धर्म के विषय में राजा से कुछ पूछना चाहती थी। उनके मन में यह संदेह था कि राजा जनक जीवन मुक्त हैं अथवा नहीं। वे योगशक्तियों की जानकार तो थी हीं। अपने सूक्ष्म बुद्धि द्वारा राजा की बुद्धि में प्रवेश कर गईं। तब राजा ने सुलभा के अभिप्राय को जानकर उनका आदर करते हुए अपने भाव द्वारा उनके भाव को ग्रहण किया। फिर राजचिह्न से रहित राजा जनक और संन्यास चिह्न से मुक्त सुलभा का एक ही शरीर में संवाद हुआ।

राजा – देवी, आप मोक्षधर्म (संन्यास-आश्रम) के अनुसार व्यवहार करती हैं और मैं गृहस्थ आश्रम में स्थित हूँ। मैं यह भी नहीं जानता कि आप विवाहित हैं या अविवाहित। मुझ में प्रवेश करने के कारण आपने गोत्र संस्कार दोष उत्पन्न कर दिया है। यदि आपके पति जीवित हैं, तो आप परायी स्त्री होने के कारण मेरे लिये धर्मसंकर दोष उत्पन्न हो गया है। मुझे लगता है कि गुप्त वेश में आप मेरे ज्ञान की परीक्षा लेने पधारी हैं। अतः संन्यासिनी आपको अपनी जाति, शास्त्र ज्ञान,चरित्र, अभिप्राय, स्वभाव एवं यहाँ आगमन का प्रयोजन भी बताना चाहिये। सुलभा राजन! वाणी और बुद्धि को दूषित करने वाले जो नौ-नौ दोष हैं,

उनसे रहित अठारह गुणों से सम्पन्न और युक्ति संगत अर्थ वाले शब्द समूह को वाक्य कहते हैं। काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, गर्व, लज्जा, दया तथा मान के द्वारा प्रेरित वाक्य दूषित होता है। जो वक्ता अपने और श्रोता दोनों के लिये अनुकूल विषय ही बोलता है, वही वास्तव में वक्ता है।

सुलभा ने वाक्य एवं भाषा के गुण-दोष समझते हुए महाराज से कहा, “तुम पूछते हो कि मैं कौन हूँ, पर यह प्रश्न निरर्थक है। जड़ और चेतन के संयोग से मेरे निर्माण की जानकारी हैं। तुम्हारी भी जानकारी ऐसी ही है। चेतन तो एक एवं अविभाज्य है तथा जड़, मेरे, तुम्हारे तथा सभी शरीरों में वही है। जैसे रेत के कण एक-दूसरे से लगे होने पर भी परस्पर एक दूसरे को नहीं जानते। वैसे प्राणी भी परस्पर एक दूसरे को आत्मस्वरूप नहीं जानते।

पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, सत्त्व, अहं, अविद्या, प्रकृति, व्यक्ति, द्वन्द्वानुभूति की शक्ति, काल, विधि, वीर्य, बल तथा सप्तधा प्रकृति- ये तीस गुण हैं। ये तीसों जहाँ सन्धी भाव में हों, उसे शरीर कहते हैं। अव्यक्त प्रकृति ने उपर्युक्त गुणों को स्वीकार करके जो व्यक्तरूप बनाया है, वही मैं हूँ। तुम और दूसरे शरीरधारी भी वहीं हैं। तुम कौन हो? तुम्हारा यह प्रश्न व्यर्थ है?”

इस प्रकार तत्वज्ञान की विविध भांति से उपदेश करने के उपरांत सुलभा ने अपना परिचय देते हुए कहा, “मैं किसी छल या कपट से यहाँ नहीं आयी हूँ। मैं तुम्हारी कीर्ति सुनकर यहाँ आई हूँ और राजन, मैं तुम्हारे विचारों की भ्रांति दूर करके तुम्हें योग्य मार्ग दिखलाने आई हूँ। मैं तुम्हारे भले के लिये कहती हूँ। स्वपक्ष-समर्थन तथा परपक्ष-खण्डन की तुम्हारी प्रवृत्ति बतलाती है कि अभी तुम्हारा अपने पक्ष में आग्रह है। जहाँ एक ही आत्मतत्व है, वहाँ अपना-पराया कहाँ? कहाँ पक्ष और कहाँ विपक्ष? तुम उसी आत्मतत्व में स्थित होकर इस आग्रह से विरक्त हो जाओ।” यह सब बातें सुनकर राजा निरुत्तर हो गये।

मदालसा

जिस माता ने यह सिद्ध कर दिखलाया कि बच्चों की सच्ची निर्माता तो माता ही होती है वह थी परम विदुषी, आदर्श सती, आदर्श माता मदालसा वह देवलोक के गन्धर्वराज विश्वावसु की पुत्री थी। उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर मायावी पातालकेनू दानव उसका अपहरण कर ले गया।

एक बार गालव ऋषि महाराज शत्रुजित के दरबार में पधारे और पाताल केतू के अत्याचारों का वर्णन किया। ऋषि ने महाराज के परम पराक्रमी पुत्र ऋतुध्वज को दानव के वध के लिये मांगा जिसे राजा ने सहर्ष स्वीकार किया। राजकुमार ऋतुध्वज ने पाताल में जाकर दानव का सेना सहित वध किया और मदालसा को भी मुक्त कराया।

राज्य में लौटकर माता-पिता ने भी मदालसा को पुत्रवधु के रूप में स्वीकार किया। महाराज शत्रुजित की मृत्यु के पश्चात् ऋतुध्वज महाराज बने और मदालसा महारानी। मदालसा के गर्भ से प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा ने उसका नाम विक्रान्त रखा। मदालसा वह नाम सुनकर हँसने लगी। इसके बाद समयानुसार क्रमशः दो पुत्र और हुए। उनके नाम सुबाहू और शत्रुमर्दन रखे गये। उन नामों के अनुरुप लोरियाँ गाने के बजाय मदालसा ने विशुद्ध आत्मज्ञान का उपदेश दिया।

शुद्धोऽसि रे तात न तेऽसि नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव । पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽसि नैवास्य तं रोदिषि कस्य हेतोः ।।

हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं हैं यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। यह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है फिर किसलिये रो रहा है। बड़े होने पर वे तीनों वैरागी और सामाजिक व्यवहार से विरक्त हो गये। तत्पश्चात्

रानी मदालसा के गर्भ से चौथा पुत्र उत्पन्न हुआ। जब राजा उसका नामकरण करने चले तो उनकी दृष्टि मदालसा पर पड़ी। वह मन्द-मन्द मुस्करा रही थी। राजा ने कहा- मैं नाम रखता हूँ तो हँसती हों इस बार पुत्र का नाम तुम्हीं रखो।’

मदालसा ने कहा- जैसी आपकी आज्ञा आपके चौथे पुत्र का नाम मैं अलक रखती हूँ।’ ‘अलर्क!’ यह अद्भुत नाम सुनकर राजा उठाकर हँस पड़े और बोले ‘इसका क्या अर्थ है?’ मदालसा ने उत्तर दिया, ‘सुनिये! नाम से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। संसार का व्यवहार चलाने के लिये कोई-सा नाम कल्पना करके रख लिया जाता है। उसका कोई अर्थ नहीं। आपने पहले का नाम रखा ‘विक्रान्त’, इस नाम के अर्थ पर विचार कीजिये। क्रांति का अर्थ है गति। जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है, वही विक्रान्त है। आत्मा सर्वत्र व्यापक है, उसका कहीं आना-जाना नहीं होता, अतः यह नाम उसके लिये निरर्थक तो है ही, स्वरूप के विपरीत भी है। आपने दूसरे पुत्र का नाम ‘सुबाहू’ रखा है। जब आत्मा निराकार है, तो उसे बाँह कहाँ से आयी। जब बाँह ही नहीं है सुबाहू नाम रखना कितना असंगत है। तीसरे पुत्र का नाम ‘शत्रुमर्दन’ रखा गया है। सब शरीरों में एक ही आत्मा रम रहा है। ऐसी दशा में कौन किसका शत्रु है और कौन किसका मर्दन करने वाला। यदि व्यवहार का निर्वाहमात्र ही उसका प्रयोजन है तब तो अलर्क नाम से भी इस उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। राजा निरुतर हो गये।

अब मदालसा ने चौथे पुत्र को भी ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया, तो राजा ने रोककर कहा- देवि! इसे भी ज्ञान का उपदेश देकर मेरी वंश परम्परा को समाप्त करने पर क्यों तुली हो? इसे प्रवृत्तिमार्ग में लगाओ और उसके अनुकूल ही उपदेश दो।’ मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली और अलर्क को बचपन में ही व्यवहार शास्त्र का पण्डित बना दिया। उसे राजनीति का पूर्ण ज्ञान कराया। धर्म, अर्थ और काम तीनों शास्त्रों वे प्रवीण बन गया। बड़े होने पर माता-पिता ने अलर्क को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं वन में तपस्या करने के लिये चले गये। अलर्क ने गंगा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी, जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार महासती मदालसा ने सिद्ध कर दिया कि सन्तान नाम रखने से महान नहीं बनती, अच्छे संस्कार से महान बनती है। सन्तान का व्यक्तित्व गढ़ने में माता की विशेष भूमिका है। मदालसा अब इस लोक में नहीं है, किन्तु उसका नाम सदा के लिये अमर हो गया।

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